शोक

शोक शब्द दुःख का पर्यायवाची है। यह अन्तःकरण का विषमता पूर्ण भाव है।

शोक और श्रीमद भगवद गीता में सम्बन्ध

यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, अगर यह कहा जाय क़ी श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद होने का कारण अर्जुन में उत्त्पन्न शोक है।

युद्ध आरम्भ होने से पूर्व अर्जुन जब दोनों पक्ष की सेना का निरक्षण करते है और दोनों ओर अपने सम्बन्धियों को देखते है तो वह शोक से ग्रस्त हो जाते है। शोक के कारण अर्जुन की स्थिति क्या होती है, इस का वर्णन अर्जुन पहले अध्याय १ श्लोक २८ से ३० में करते है।

“मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं, मुख सूख रहा है, मेरे शरीर में कँपकँपी हो रहीं है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। मेरे हाथ से गाण्डीव (धनुष) गिर रहा है और त्वचा जल रही है। मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ”।

शोक का कारण सम्बन्ध है इसकी स्पष्टता इस प्रकार होती है कि अर्जुन युद्ध में खड़े योद्धाओं को अध्याय १ श्लोक २८ और श्लोक ३७ में स्वजनं कहते है।

अध्याय २ श्लोक ८ में अर्जुन कहते है की “इन्द्रियों को सुखाने वाला मेरा जो शोक है, वह दूर हो जाय – ऐसा मैं नहीं देखता हूँ”। अर्जुन के शोक का कारण है अपने स्वजनों को मरते हुये देखना और उसे भी अधिक स्वयं उनको युद्ध में मरना। अतः शोक के कारण अर्जुन युद्ध करने से इंकार कर देते है।

तदुपरान्त भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन दूर करने के लिये और अर्जुन को अपना कर्तव्य पालन करने के लिये संवाद करते है।

शोक होने का कारण क्या है?

मनुष्य जब किसी प्राणी से सम्बन्ध मानता है, तब उस प्राणी से वियोग होने पर मनुष्य को शोक की अनुभूति होती है। शोक का कारण वियोग नहीं है, अपितु सम्बन्ध है। परन्तु मनुष्य को लगता है कि शोक का कारण वियोग है। विचार करने पर ज्ञात होगा कि मनुष्य का जिन प्राणी से सम्बन्ध नहीं होता, उनके वियोग का शोक भी नहीं होता।

अध्याय २ श्लोक ११ से भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन का कल्याण करने के लिये अपने विचार व्यक्त करना आरम्भ करते है। वह कहते है कि हे अर्जुन जिन लोगो के साथ तुम अपना सम्बन्ध मान कर शोक कर रहे हो वह तुम्हारे अज्ञान के कारण है। जो ज्ञानी (पण्डित) होता है, वह मृत लोगों के लिये शोक नहीं करता।

शोक क्यों नहीं करना चाहिये, इसके लिये भगवान श्रीकृष्ण अध्याय २ श्लोक १२ में इस प्रकार वर्णन करते है।

“मैं कृष्ण रूप से, तुम अर्जुन रुप से तथा यह सब लोग राजा रूप से पहले भी नहीं थे और आगे भी नहीं रहेंगे।

इस कथन के दो भाग है:

पहला कि जब ये शरीर नहीं थे, तब भी हम सब चेतनतत्त्व रूप में थे और जब ये शरीर नहीं रहेंगे तब भी हम सब चेतनतत्त्व रूप में रहेंगे अर्थात् ये सब शरीर नाशवान् हैं और चेतनतत्त्व अविनाशी। भूत, भविष्य और वर्तमान-काल में तथा किसी भी देश, परिस्थिति, अवस्था, घटना, वस्तु आदि में चेतनतत्त्व का किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं होता।

दूसरा कि मैं, तुम तथा राजा लोग – ये तीनों शरीर को लेकर तो अलग-अलग हैं, पर चेतनतत्व रूपसे एक ही हैं।

इसलिए इन सब के लिये शोक करना नहीं बनता।

शरीर असत् (नाशवान) है, तो उसके लिये शोक क्यों ? (अध्याय २ श्लोक १६)

क्योकि शरीर को चेतना प्रदान करने वाला चेतनतत्त्व (शरीरी) अथवा परमात्मतत्व कहा जाता है। परमात्मतत्व अविनाशी एवं सनातन है। इसलिए इसको सत् भी कहा जाता है। सत् , अर्थात सनातन न की सत्य।

शरीर उत्पत्ति के पहले भी नहीं था, मरने के बाद भी नहीं रहेगा और वर्तमान में भी इसका क्षण-प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। अतः यह असत् है। शरीर जिन-जिन पदार्थों से बना है, उन सब का मूल तत्व परमात्मतत्व है, जो सत् है। अतः असत् का मूल तत्व भी सत् है।

इस परमात्मतत्व को अनुभव करने वाले तत्त्वदर्शी असत् के लिये मोह और शोक नहीं करते। कारण कि असत् का अन्त निश्चित है।

अर्जुन युद्ध में सम्बन्धियों (मनुष्य शरीर) के मर जाने का शोक कर रहे हैं। इस पर भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन युद्ध न करने से ये लोग नहीं मरेंगे, ऐसा तुम्हारा मानना, तुम्हारा अज्ञान है। असत् तो मरेगा ही, आज नहीं तो कल, और निरन्तर मर ही रहा है, परन्तु इसमें जो सत्रूप से है उसका कभी अभाव नहीं होगा। इसलिये तुम्हे शोक नहीं करना चाहिये।

अनित्य विषयों को लेकर होने वाला शोक भी अनित्य है। (अध्याय २ श्लोक १४)

 

मनुष्य जिन पदार्थ और प्राणी से वियोग होने पर शोक करता है, वह शोक का भाव भी कुछ समय के लिये रहता है। नित्य न रहने वाले विषयों को लेकर होने वाला शोक स्वयं भी अनित्य है। अतः उस शोक को महत्व देने में कोई औचित्य नहीं है।

मनुष्य का अस्तित्व नित्य पैदा-मरने वाला है। इसका शोक उचित नहीं (अध्याय २ श्लोक २६ एवं श्लोक २७)

शरीर-शरीरी के अलग-अलग होने का विचार न करके अगर केवल शरीर के होने का विचार करे तो ज्ञात होगा कि, सूक्ष्मरूप से वीर्यका जन्तु रज के साथ मिल कर बीज रूप धारण करता है। बीज बढ़ते-बढ़ते बच्चे का रूप लेता है और फिर उसका जन्म होता है। जन्म के बाद वह बढ़ाता है, फिर घटता है और अन्त में मर जाता है। इस तरह शरीर एक क्षण भी एकरूप से न रहकर बदलता रहता है अर्थात् प्रतिक्षण जन्मता-मरता रहता है। इस जन्म-मरण में किसी का किञ्चिन्मात्र भी वश नहीं चलता। जब प्रकृति की इस प्रक्रिया पर मनुष्य का वश नहीं तो उस प्रक्रिया को स्वीकार कर लेना चाहिये और शोक करना उचित नहीं है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि शरीर का जन्म-मृत्यु का यह निरन्तर प्रवाह ही जीवन है, तो, हे शक्तिशाली अर्जुन! तुम को शोक नहीं करना चाहिये।

प्राणी जन्म और मृत्यु के बीच में ही व्यक्त हैं। इसलिये शोक करना उचित नहीं। (अध्याय २ श्लोक २८)

देखने, सुनने और समझने में आने वाले जितने भी प्राणी (शरीर आदि) हैं, वे सब-के-सब जन्मसे पहले अव्यक्त थे अर्थात् उनका अस्तित्व नहीं था। मरने के बाद भी अव्यक्त हो जायँगे, अर्थात् नाश होने पर इन का अस्तित्व नहीं रहेगा।

जन्म होने पर, मरण से पहले जो बीच का समय है, उसमे ही यह शरीर व्यक्त हैं, अर्थात् इसका अस्तित्व है। परन्तु शरीर के अस्तित्व में होने के अन्तराल में भी इस में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। मनुष्य बालक से युवा, युवा से व्रद्ध होता है, घटता है, बढ़ता है। अतः इस प्रकार परिवर्तन होने वाली और आने-जाने वाली विषय पर शोक का कोई कारण नहीं है।

सब शरीरों में स्थित नित्य, अवध्य देही के लिये शोक उचित नहीं। (अध्याय २ श्लोक ३०)

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मूल तत्व जानने की यह है कि, परमात्मतत्व नित्य और अविनाशी है। इसलिये समस्त प्राणियों के लिये तुमको शोक करना उचित नहीं है।

यह जीवात्मा सर्वव्यापी होनेके कारण मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि स्थावर-जङ्गम् सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंमें नित्य अवध्य अर्थात् अविनाशी रूपसे स्थित है।

इसलिये तुम्हें किसी भी प्राणीके लिये शोक नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस देहीका विनाश कभी हो ही नहीं सकता और विनाशी देह क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता।

अर्जुनके मनमें कुटुम्बियों के मरने का शोक था और गुरुजनों को मारने पर होने वाले पाप का भय था। शोक था कुटुम्बियों से होने वाले वियोग का और भय था, पाप के कारण नरक प्राप्ति का। अतः भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन का शोक दूर करने के लिये अध्याय २ श्लोक ११ से इस श्लोक तक का प्रकरण कहा है।

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