इस विज्ञान के द्वारा सनातन वैदिक सभ्यता ने मनुष्य का अधिकतम विकास किस प्रकार हो और समाज किस प्रकार व्यवस्थित रूप से चले, इसके लिये सिद्धांत दिया। वर्ण एक वैज्ञानिक सिद्धांत है और निश्चित रूप से यह ‘जाती‘ व्यवस्था नहीं है। वर्ण सिद्धांत समाज को किसी प्रकार से विघटित करने के लिये नहीं है। भारतीय सभ्यता ने जब तक इस सिद्धांत का अनुसरण किया, तब तक, वह एक विकसित सभ्यता रही जिसमें सभी लोग प्रसनचित और सन्तुष्ट थे। समाज में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं था।
किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत का सदुपयोग अथवा दुरुपयोग मनुष्य सभ्यता में आरम्भ से होता रहा है। वैज्ञानिक सिद्धांत का दुरुपयोग करने से सिद्धांत गलत नहीं हो जाता।
आई जानते है की वर्ण वैज्ञानिक सिद्धांत क्या है।
मनुष्य के तीन मुख्य गुण है जो उसको सृष्टि के अन्य जीव-जन्तु (प्राणी) से अलग करते है।
मनुष्य को छोड़ कर सृष्टि में जितने भी प्राणी है, उन सब में, वे सभी गुण है जो उनके जीवन-निर्वाह के लिये आवश्यक है। हर जीव जीवन-निर्वाह के लिये, अपने-आप में सक्षम है। कुछ जीव में नर और मादा मिल कर कार्य करते है और कुछ प्रकार के जीव समूह में भी रहते है।
परन्तु जीवन-निर्वाह के लिये मनुष्य को अन्य मनुष्य की आवश्यकता होती है। इसलिये मनुष्य समूह में तो रहता ही है, साथ में वह एक समाजिक व्यवस्था में भी रहता है। वह स्वयं से सभी कार्य नहीं कर सकता। समाजिक व्यवस्था में अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग प्रकार के कार्य करते है, जो एक दूसरे के जीवन व्यापन के लिये आवश्यक और सहायक है।
पाषाण युग में कुछ व्यक्ति पशु-पक्षी का शिकार करते थे। कुछ व्यक्ति शिकार किये हुए जीव को पकाते थे। कुछ रहने की व्यवस्था करते थे। कुछ वस्त्रों की व्यवस्था करते थे। महिलाये अन्य कार्यों के अलावा बच्चे पालने का कार्य करती थी।
जैसे-जैसे मनुष्य विकसित हुआ, उसने नय-नय अविष्कार किये। समाजिक व्यवस्था में बदलाव होते गये और अनेक प्रकार के नय कार्य विकसित होते गये। जैसे-जैसे अनेक प्रकार के कार्य विकसित होते गये, उन कार्यों को करने का दायित्व भी विभाजित होता गया।
इस प्रकार जैसे-जसे मनुष्य विकसित होता गया, समाजिक व्यवस्था में रहने के लिये मनुष्य के कार्य अधिक होते गये और वह कार्य विभाजित भी होते गये। समाजिक व्यवस्था में परिवार व्यवस्था भी बनी। जिसमें एक परिवार में ही अलग-अलग व्यक्तियों (पुरुष और महिला) ने अलग-अलग कार्य करने का दायित्व लिया।
हर मनुष्य ने अपने रूचि, सामर्थ्य, शक्ति, और कौशल (हस्तकला), के अनुरूप अपने कार्य का चयन किया। यह तो निश्चित है कि हर व्यक्ति ने अपने कार्य का चयन किया, परन्तु किस प्रकार के व्यक्ति ने किस प्रकार के कार्य का चयन किया?
आइये जानते है।
जिस व्यक्ति में कौशल (हस्तकला), की प्रधानता होती है, – वह समाज के वे सभी कार्य करता है जो मनुष्य के जीवन को आरामदायक बनाये। लोहार, कुम्हार, मोची, कपडा बनाने वाला, आदि हस्तकला सम्भंदित कार्य है जो इस प्रकार के व्यक्ति करते है। अन्य सेवा सम्बंधित कार्य, जिसमें कौशल की बहुत आवयशकता न हो, वे कार्य भी इस प्रकार के श्रेणी में आते है।
जिस व्यक्ति में बुद्धि और कौशल की प्रधानता होती है, – वह व्यपार, वाणिज्य, कृषि, एवं अन्य खाद्य सम्भंधित वस्तुओं का उत्पादन करने वाले कार्य करता है। अर्थ व्यवस्था, और समाज को व्यवस्थित बनाने सम्बन्धित कार्य इसी प्रकार के श्रेणी में आते है।
जिस व्यक्ति में शक्ति, और निर्भीकता की प्रधानता होती है, – वह उन कार्यों का चयन करता है जो समाज की सुरक्षा में सहायक हो और जिसमें जीवन को संकट अधिक हो। ऐसे व्यक्ति समाज को संघठित करने और उनका नेतृत्व करने का काम करते हैं। राष्ट्र को आन्तरिक और बाह्य आक्रमणों से बचाकर राष्ट्र में शांति और समृद्धि लाने का दायित्व इस प्रकार के लोग निपूर्णता से करते है। सिपाही, सेनानी आदि कार्य इसी प्रकार के व्यक्ति करते हैं।
जिस व्यक्ति में बुद्धि की प्रधानता होती है, – वह वैज्ञानिक विषयों का अध्यन करता है। वह नई-नई वस्तु का अविष्कार करता है। वह उन सिद्धांतों की रचना करता है, जो मनुष्य, समाज के लिये कल्याण कारक हो। वह आचार्य और शिक्षा का कार्य करता है।
इन चार प्रकार के व्यक्तिओं में प्रधानता किसी एक गुण की होती है, परन्तु अन्य गुण भी अलग-अलग मात्रा में स्थित होते है। इन गुणों की मात्रा के अनुरूप ही व्यक्ति अलग-अलग प्रकार के कार्य करता है।
समाज को, राष्ट्र को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिये सभी प्रकार के कार्यों को करना अनिवार्य है। किसी कार्य की अधिक महत्ता हो और किसी की कम, ऐसा सोचना मूर्खता है।
कोई भी युग हो या काल हो, और किसी भी प्रकार के कार्य हो, मनुष्य अपनी रूचि, सामर्थ्य, शक्ति, और कौशल के अनुरूप अपने कार्य का चयन करता है, और वह चयन स्वतः होता है। इस विषय पर श्रीमद् भगवद् गीता के अध्याय ४ श्लोक १३ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मनुष्य के सभी कार्य उसके त्रिगुण और वर्ण के अनुरूप होते है।
आज के अति आधुनिक काल में भी अनेक नय-नय प्रकार के कार्य विकसित हो गये है। परन्तु वह सभी कार्य इन चार मुख्य श्रेणी में विभाजित किये जा सकते है।
अतः सनातन वैज्ञानिक वेदों में इन चार चार प्रकार के कार्यों का नाम इस प्रकार है।
शुद्र – कौशल की प्रधानता वाला व्यक्ति (अध्याय १८ श्लोक ४४)
वैश्य – बुद्धि और कौशल की प्रधानता वाला व्यक्ति (अध्याय १८ श्लोक ४४)
क्षत्रिय – शक्ति, और निर्भीकता की प्रधानता वाला व्यक्ति (अध्याय १८ श्लोक ४३)
ब्रह्मण – बुद्धि की प्रधानता वाला व्यक्ति (अध्याय १८ श्लोक ४२)
सनातन वैज्ञानिक वेद के ज्ञाता (ऋषि) ने अध्यन करने पर जाना की बुद्धि, निर्भीकता और कौशल (हस्तकला) मनुष्य को संस्कार के रूप में मुख्यता जन्म से स्वतः ही प्राप्त होते है। जिस को आज के आधुनिक विज्ञान में आनुवंशिकी (genetic) कहते है। इन गुणों को शिक्षा एवं प्रशिक्षण से और अधिक विकसित तो किया जा सकता है, परन्तु प्राप्त नहीं किया जा सकता।
अतः अगर शिशु में किस प्रकार के गुण की प्रधानता है, यह जान लिया जाय, और उसको उस प्रकार के कार्य की शिक्षा एवं प्रशिक्षण दिया जाय तो वह उस प्रकार के कार्य में निपूर्ण हो सकता है।
संस्कार में बुद्धि का विकास, निर्भीकता, हस्तकला (हाथों से काम करने की क्षमता), संसार को देखने-समझने की अभिवृत्ति और व्यव्हार आते है।
मनुष्य को कुछ संस्कार तो जन्म से ही प्राप्त होते है और कुछ वह जन्म के बाद अपने प्राम्भिक वर्षों में ग्रहण करता है। ऋषिओं ने अध्यन के द्वारा ऐसा जाना है कि शिशु में संस्कार का विकास, जन्म के बाद प्रारम्भ के १० वर्षो तक होता है और उस में भी प्रारम्भ के ५ वर्षो में अधिकांश होता है।
अतः शिशु को प्राम्भिक वर्षों में जिस प्रकार का वातावरण और शिक्षा मिलती है, उस में उसी प्रकार के संस्कार विकसित होते है। क्योंकि शिशु प्राम्भिक वर्षों में अपने परिवार में रहता है, अतः उसको संस्कार अपने परिवार से मिलते है और कुछ गुरुकुल, शिक्षा संस्थान से प्राप्त होते है।
ऋषिओं ने अध्यन के द्वारा यह भी जाना कि शिशु जब माँ के गर्भ में होता है, तब भी वह माँ के आचरण, और माँ के आस-पास के वातावरण से संस्कार ग्रहण करता है।
अतः जिस शिशु का जन्म बुद्धि प्रधान व्यक्ति के घर में होता है, उसमें आनुवंशिक रूप से बुद्धि प्रधान गुण होने की संभावना अधिक है। साथ ही जन्म के बाद भी उसको घर में वह वातावरण मिलता है जिससे उसमें बुद्धि प्रधान संस्कार अधिक विकसित होते है।
सनातन वेद के ज्ञाताओं (ऋषि) ने और सनातन वेद का अनुसरण करने वाले भारतीय समाज ने वर्ण सिद्धांत का अनुसरण किया। उन्होंने जाना की समाज को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिये हर प्रकार की क्षमता वाले व्यक्ति की समाज को आवयशकता है। इस में न किसी का महत्व अधिक है और न कम। हर प्रकार की क्षमता वाले व्यक्ति समाज के लिये अनिवार्य है।
पूर्व काल में सभी प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन पारिवारिक स्तर पर होता था, और आज के समय के अनुरूप व्यवस्थित वस्तु उत्पादन करने वाली बड़ी संस्थान नहीं होती थी। अतः भारतीय समाज ने वर्ण सिद्धांत का अनुसरण करते हुये अपने-अपने क्षेत्र के कार्यों में निपूर्णता प्राप्त की और विकास किया।
यही कारण था की भारत ५००० वर्षों तक एक विकसित सभ्यता रही।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
Read MoreTo give feedback write to info@standupbharat.in
Copyright © standupbharat 2024 | Copyright © Bhagavad Geeta – Jan Kalyan Stotr 2024