अपने विचार को, या निर्णय को सिद्ध करने के लिये, मनुष्य जो विवेक पूर्ण तर्क देता है, पर वास्तव में वह होते अविवेक पूर्ण है, तब इस प्रकार के विचारों को कश्मलम् कहते है। सरल शब्दों में इसको मूढ़ता (मूर्खता) पूर्ण विचार भी कह सकते है।
कश्मलम् पद श्रीमद् भगवद् गीता के अध्याय २ श्लोक २ में, अर्जुन के विशेष प्रकार के आचरण के लिये आया है।
युद्ध में स्थित अपने सम्बन्धियों को देख अर्जुन अत्यंत ही व्यथित, व्याकुल हो जाते है। उसका अन्तःकरण विषमता से परिपूर्ण हो जाता है। वह युद्ध न करने का निश्चय लेते है और उस निश्चय के लिए अनेक प्रकार के अविवेक पूर्ण तर्क (अध्याय १ श्लोक ३१ से श्लोक ४६) अपना विवेक समझ कर देते है।
इस प्रकार का विचार अत्यन्त ही दुष्कर तब हो जाता है जब उसकी उत्त्पति विषम परिस्थिति एवं स्थान पर हुई हो। कौरव और पाण्डव के मध्य युद्ध का शँखनाद होने के पश्चात, युद्ध क्षेत्र के मध्य पहुँच कर युद्ध न करने का विचार अर्जुन करते है। साथ ही अर्जुन का इस प्रकार युद्ध का त्याग करने से, न तो उसके स्वयं का कल्याण होता है, और न ही समग्र समाज का कल्याण होता है।
इसी मूढ़ता पूर्ण विचारों और कृत के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने कश्मलम् पद का प्रयोग किया है।
कल्याण, भोग, पाप-पुण्य, सुख-दुःख, धर्म-अधर्म, वर्णसंकर, आदि अनेक प्रकार के विषयों को लेकर अर्जुन, युद्ध न करने के लिये, अपनी विवेक पूर्ण बुद्धि से तर्क देते है। परन्तु यह तभी तर्क अज्ञान पर आधारित होते है, ज्ञान पर नहीं। अतः इन विषयों में पूर्ण ज्ञान क्या है? इस ज्ञान का सम्पूर्ण रूप से वर्णन श्रीमद् भगवद् गीता में हुआ है।
विशेष बात: ज्ञान का न होना अज्ञान नहीं है। पूर्ण रूप से ज्ञान न होना अज्ञान है।
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