नपुंसकता

मनुष्य को कार्य करने के लिये जो गुण प्रकृति से प्राप्त है, उन गुणों से विपरीत कार्य करना मनुष्य की नपुंसकता है।

अन्य प्राणीओं की अपेक्षा मनुष्य को कुछ विषय गुण प्राप्त है। वह गुण इस प्रकार है:

  • बुद्धि
  • बल
  • तेज (प्रतिभा)

इन गुणों का वर्णन भगवान श्रीकृष्ण ने अध्याय ७ श्लोक १० एवं श्लोक ११ में किया है।

मनुष्य जब मूढ़ता वश अपने इन गुणों का प्रयोग समाज कल्याण के लिये नहीं करता, तब वह नपुसंक कहलाता है।

वर्तमान समय में प्राय ऐसा माना जाता है कि वह पुरुष नपुसंक है, जो अपना वीर्य महिला के गर्भ में स्थापित नही कर पाता। परन्तु नपुंसकता का यह अर्थ सत्य नहीं है।

श्रीमद् भगवद् गीता में नपुंसकता सम्बंधित वर्णन।

अध्याय २ श्लोक ३ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को नपुंसकता को प्राप्त न होने की चेतावनी देते है। अर्थात क्लैब्यं पद का प्रयोग नपुंसकता के लिये करते है।

अर्जुन जब युद्ध क्षेत्र के मध्य में स्थित होकर निरिक्षण करते है। तब दोनों पक्षों में अपने सम्बन्धी, बन्धुओं को देख कर करुणा से भर जाते है। अपने सम्बन्धिओं से युद्ध करने पर सब मृत्यु को प्राप्त हो जायगे, ऐसा विचार कर अर्जुन विषाद युक्त हो जाते है।

तब अर्जुन युद्ध को न करने के लिये अनेक प्रकार से अपने विचार भगवान श्रीकृष्ण के समक्ष रखते है।

अध्याय १ श्लोक २८ से श्लोक ४७ में प्रज्ञावान के सामान अनेक प्रकार के विचार रखते है, यह सिद्ध करने के लिये कि युद्ध न करना ही श्रयकर है।

परन्तु सत्य यह था कि अर्जुन योद्धाओं से सम्बन्ध मान कर भयभीत थे। सम्बन्धिओं से वियोग होने का उनको भय था।

क्योकि अर्जुन एक क्षत्रिये थे, योद्धा थे, इसलिये उनके लिये युद्ध करना ही श्रेष्ठ कार्य था। इसके लिये भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण श्रीमद् भगवद् गीता कही है।

मनुष्य को प्रकृति से जो गुण प्राप्त है, वह सभी गुण अर्जुन को प्राप्त थे। अर्जुन क्षत्रिये थे, बुद्धिमान थे, बलवान थे और कुशल योद्धा (तेजस्वी) थे। कुरुक्षेत्र युद्ध से पूर्व अर्जुन ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन अनेक बार किया था। कभी भी उन्होंने भय का प्रदर्शन नहीं किया था।

परन्तु कुरुक्षेत्र युद्ध के आरम्भ में अर्जुन भय को प्राप्त हो जाते है और युद्ध न करने का निर्णय लेते है। क्योकि अर्जुन का यह कृत उसके गुणों के विपरीत था, इसलिये अर्जुन के लिये भगवान श्रीकृष्ण नपुंसकता पद का प्रयोग करते है।

 

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