सभी प्रकार के प्राणियों में केवल मनुष्य में ही प्रज्ञ (निर्णय लेने की क्षमता) रूपी गुण होता है।
मनुष्य भौतिक एवं आध्यात्मिक विषयों को ग्रहण कर, उसके ज्ञान के आधार पर उचित-अनुचित का विचार कर निर्णय लेता है। उचित-अनुचित का विचार कर निर्णय लेने का कार्य प्रज्ञा का है।
जो मनुष्य प्रखरता से प्रज्ञा का उपयोग करता है, वह प्रज्ञावान कहलाता है।
मनुष्य को जिस प्रकार का और जितना ज्ञान होता है, उस ज्ञान के आधार पर ही प्रज्ञा अपना कार्य करती है। अतः उचित-अनुचित का विचार कर, उचित निर्णय लेना, प्राप्त ज्ञान पर निर्भर करता है।
अध्याय २ श्लोक ११ में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को प्रज्ञावान कहते है। कारण कि, अर्जुन युद्ध न करने का निर्णय लेते समय अनेक प्रकार से उचित-अनुचित विषयों का विचार करते है। जिसका वर्णन अध्याय १ श्लोक ३६ से अध्याय १ श्लोक ४५ और अध्याय २ श्लोक ४ से श्लोक ९ में हुआ है।
परन्तु साथ ही भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, तुम्हारा विषयों का विचार कर, निर्णय लेने जो आधार है वह अज्ञानता है। कारण कि तुमको पूर्ण ज्ञान नहीं है, जो पण्डित को होता है।
इसलिये तुम उनके लिये शोक कर रहे हो, जिनके लिये पण्डित लोग शोक नहीं करते।
अध्याय २ श्लोक ५४ में अर्जुन प्रश्न करते है की प्रज्ञावान किस प्रकार के वचन बोलते है। अर्जुन का इस प्रश्न को करने का कारण है कि, अध्याय २ श्लोक ११ में भगवान श्रीकृष्ण ने उल्हना दिया था कि वचन तो तुम्हारे प्रज्ञावान के सामान है, परन्तु कार्य तुम्हारे अज्ञानियों के सामान है।
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