भोग

संसार के विषयों से सम्बन्ध मान कर उनका रस लेना, सुख लेना भोग है।

 

शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध – यह इन्द्रियों के पाँच विषय है। मनुष्य को संसार का ज्ञान इन्द्रियों से होता है और इनसे ही वह विषयों का रस और सुख लेता है।

मुख्य विचार यह है की मनुष्य इन विषयों का भोग तभी कर सकता, जब वह शरीर से अपना सम्बन्ध माने।

संसारिक विषयों का भोग लेने से मनुष्य की आसक्ति (सम्बन्ध) इन विषयों में दृढ़ हो जाती है। तब भोग में बाधा लगने की आकांशा से मनुष्य को भय लगता है। भोग विषयों का त्याग होने पर मनुष्य को दुःख होता है।

जिस प्राणी, परिस्थिति के कारण भोग में बाधा की आकांशा लगती है, या भोग का त्याग होता है, उस पर क्रोध आता है। इस कारण मनुष्य प्राणी, परिस्थिति से द्वेष करता है।

भोग में बाधा न लगे या त्याग न हो, उसके निवारण हेतु मनुष्य विभिन्न प्रकार के कार्य करता है।

एक विषय की प्राप्ति होने पर मनुष्य अन्य विषय को प्राप्त करने की कामना करता है। इस प्रकार मनुष्य भोग में आसक्त हो, नविन विषयों की कामना करता है। और कामना पूर्ति के लिये नई-नई कार्यों का आरम्भ करता है।

अध्याय २ श्लोक ४२

जिन मनुष्य का जीवन उद्देश्य, भोग भोगना ही है, वह कामना में तन्मय, जीवन भर अनेक और विविध प्रकार के कार्य करते है।

भोग में विषयों को लेकर भय लगना, क्रोध आना, दुःख होना, द्वेष उत्पन्न हुआ, अन्तःकरण की वृति है। इन व्रतियों के बन्धन में बंध कर मनुष्य अनेक प्रकार के कार्य करता है अथवा नहीं करता। इस बंधन का निवारण व्रतियों के त्याग से है, समता की प्राप्ति से है।

अध्याय २ श्लोक ४१

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि व्रतियों का त्याग करने के लिये बुद्धि में दृढ़ निश्चय करना अनिवार्य है। अन्यथा मनुष्य की बुद्धि में अनेक कामना उत्पन्न होती रहेगी।

अध्याय २ श्लोक ४४

भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो मनुष्य भोग में आसक्त है, उसे लिये समता प्राप्ति के लिये बुद्धि में दृढ़ निश्चय करना अत्यन्त कठिन है

इस प्रकार इन तीन श्लोक के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मनुष्य को सतर्कता पूर्वक निश्चित रूप से भोग का त्याग करना चाहिये।

 

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