अनार्य उस पुरुष का वाचक है, जो आर्य न हो। जुष्टम् का अर्थ है – तिरस्कृत कार्य।
परमात्मा (समता) प्राप्ति ही जिस मनुष्य का उद्धेश्य हो और उस उद्धेश्य की पूर्ति के लिये यथावत आचरण हो, उस पुरुष को आर्य कहते है। आर्य को श्रेष्ठ पुरुष भी कहा जाता है। इस यथावत आचरण के विपरीत जिसका आचरण हो उसको अनार्यजुष्टम् कहते है।
जो कार्य करने योग्य न हो। जिस कार्य को करना तिरस्कृत रूप में देखा जाय। ऐसे कार्य के लिये जुष्टम् पद श्रीमद् भगवद् गीता में आया है।
यह पद श्रीमद् भगवद् गीता के अध्याय २ श्लोक २ में आया है।
“अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन”
अर्जुन के कहने पर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ को पाण्डव और कौरवों की सेना के मध्य में लेजाते है। अर्जुन जब दोनों पक्ष में अपने सम्बन्धियों को देखता है, तब वह विषाद से परिपूर्ण हो जाता है और विलाप करने लगता है। तब उनके विचार और भाव किस प्रकार के होते है इसका वर्णन अध्याय १ श्लोक २८ से श्लोक ४६ में हुआ है। और इस प्रकार अपने बात कह कर अर्जुन बाणसहित धनुष को त्याग कर, रथ के मध्य भाग में बैठ जाता है।
योद्धा के लिये, क्षत्रिये के लिये युद्ध के मध्य में पहुँच कर इस प्रकार युद्ध का त्याग कर देना, एक आर्य का आचरण नहीं होता।
जो कार्य करने योग्य न हो। जिस कार्य को करना तिरस्कृत रूप में देखा जाय। ऐसे कार्य के लिये जुष्टम् पद श्रीमद् भगवद् गीता में आया है।
युद्ध क्षेत्र में पहुँच कर युद्ध का त्याग करना न केवल आर्य के आचरण के विपरीत है, अपितु तिरस्कृत कार्य है। निन्दा का पात्र है। अतः भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार के कार्य को जुष्टम् कहते है।
उच्छिष्ट के सामान जो कार्य करने योग्य नहीं है, जो तिरस्कृत है उसके लिये अनार्य के साथ जुष्टम् पद आया है।
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