स्वर्ग की प्राप्ति के लिये मनुष्य दुवारा, जिस प्रकार के कार्य किये जाने चाहिये, उनको न करने से मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती और इस प्रकार के कार्य को अस्वर्ग्यम् कहते है।
श्रीमद् भगवद् गीता के अध्याय २ श्लोक २ में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को सम्बोधित करते हुए अस्वर्ग्यम् पद का प्रयोग करते है।
“अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन”
अर्जुन, युद्ध क्षेत्र के मध्य जाकर जब दोनों पक्ष में अपने सम्बन्धियों को देखता है, तब उसके अन्तःकरण में ममता उत्त्पन्न हो जाती है। वह विलाप करता है और कहता है कि, अपने सम्बन्धियों को मारने से तो पाप ही लगेगा। और मैं यह पाप कैसे कर सकता हूँ।
अध्याय १ श्लोक ३६ में अर्जुन कहते है कि, धृतराष्ट्र के पुत्रों को मार कर हमें केवल पाप ही लगेगा।
अध्याय १ श्लोक ३८ में अर्जुन कहते है कि, अपने सम्बन्धी और मित्रों को मार कर पाप ही लगेगा।
इस युद्ध से वर्णसंकर उत्पन्न होगा, और कुलधर्म नष्ट होगा। ऐसा होने से हमारे कुल के लोग अनियत काल तक नरक में वास करेंगे (अध्याय १ श्लोक ४२ से श्लोक ४४ तक)।
इस प्रकार अनेक प्रकार की युक्तियाँ दने के उपरांत अर्जुन युद्ध का त्याग कर, रथके मध्यभाग में बैठ जाते है।
विद्वानों का ऐसा मानना है कि, पाप करने से मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती। अपितु उसको नरक के कष्ट भोगने पड़ते है।
परन्तु अध्याय २ श्लोक २ में भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन को कहते है कि युद्ध न करने से तुमको स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होगी। अतः भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, अर्जुन के लिये युद्ध न करना अधिक बड़ा पाप है, सम्बन्धियों को मारने से!
ऐसा किस प्रकार है? इस विषय को समझने के लिये पाप-पुण्य क्या है? स्वर्ग क्या है? इसको पूर्ण रूप से जानना अति आवयशक है।
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