अहिंसा

शरीर, मन, वाणी, भाव आदि के द्वारा किसी का भी किसी प्रकार से अनिष्ट न करने को ‘अहिंसा’ कहते हैं।

 

अन्यों को शारीरिक कष्ट देना, अंग भंग करना, या वध कर देना। यह ही केवल हिंसा नहीं है। वाणी द्वारा अन्यों को अपशब्द कहना हिंसा है। मन से किसी के लिये अनिष्ट का भाव रखना हिंसा है। भौतिक संसाधनों से वंचित रखना, मानसिक कष्ट देना आदि भी हिंसा ही है।

स्वयं हिंसा करना, किसी से करवाना, अथवा अन्य द्वारा की गई हिंसा का अनुमोदन-समर्थन करना, सभी हिंसा है।

 

श्रीमद् भगवद् गीता में अहिंसा सम्बंधित वर्णन।

 

अध्याय १० श्लोक ४ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि अहिंसा मनुष्य का भाव है। इस का अर्थ यह है कि अन्तःकरण में अहिंसा के भाव को धारण करना चाहिये। मनुष्य में जब अहिंसा का भाव स्थित रहेगा, तब हिंसा स्वतः ही नहीं होगी।

अध्याय १६ श्लोक २ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो मनुष्य अहिंसा का आचरण करता है, वह देवी सम्पदा को प्राप्त है।

अतः अध्याय १३ श्लोक ७ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि अहिंसा, मनुष्य के आचरण में होनी चाहिये।

मनुष्य अहिंसा को अपने आचरण में किस प्रकार धारण करे?

मनुष्य जब कोई भी कार्य करता है, तब उसको फल स्वरूप सृष्टि से पदार्थ की प्राप्ति होती है। अध्याय ३ श्लोक १२ में ब्रह्माजी जी कहते है कि मनुष्य को प्राप्त पदार्थ को निर्वाह मात्र के लिये उपयोग में करके, शेष को अभाव ग्रस्त मनुष्य की सेवा मे लगा देना चाहिये। मनुष्य का जब सेवा का भाव रहेगा, तब अहिंसा स्वतः होगी।

कारण कि समष्टि संसार से सेवा के लिये मिले हुए पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति, आदि में से किसी को भी अपने भोगके लिये व्यक्तिगत मानना हिंसा ही है।

संसार से प्राप्त पदार्थ को केवल अपनी, अथवा अपने लिये मानना हिंसा का कारण है। अपनी या अपने लिये मान कर, जब मनुष्य का उस वस्तु से वियोग होता है, और वियोग का कारण कोई अन्य प्राणी होता है, तब मनुष्य को क्रोध आता है। क्रोध आने पर मनुष्य हिंसा करता है। प्राप्त वस्तु का भोग एवं संग्रह न करना अहिंसा है।

द्वेष भाव रहने से मनुष्य निन्दा करता है, जो की हिंसा है। अतः किसी के प्रति द्वेष का भाव न होना अहिंसा है।

 

 

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