मनुष्य की संरचना किस प्रकार की है, इसका विवरण श्रीमद् भगवद् गीता के अध्याय १३ श्लोक ५ में हुआ है।
पाँच महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, इन्द्रियों के पाँच विषय, मन, प्रकृति, बुद्धि और चेतना, इन चौबीस तत्त्वों से मनुष्य का शरीर बना है।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और इन्द्रियों के पाँच विषय के द्वारा मनुष्य क्रमश प्रत्येक विषय को ग्रहण करता है। प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय केवल एक ही विषय को ग्रहण करती है। पाँचों इन्द्रियों से सम्बद्ध (संबंध रखनेवाला) मन समस्त विषयों की संवेदनाओं को एकत्र करता है।
पूर्व संस्कार, और मनुष्य की प्रकृति के अनुरूप मन एकत्र संवेदनाओं के प्रति भाव उत्त्पन्न करता है और विषयों को भावनाओं के साथ बुद्धि के समक्ष निर्णय के लिए प्रस्तुत करता है।
जीवन में वस्तु की यथार्थता, अनुभवों का शुभ और अशुभ रूप में निर्धारण करना ही बुद्धि का कार्य है। तत्पश्चात् बुद्धी निर्णय कर उस निर्णय को पाँच कर्मेन्द्रियों के द्वारा कार्यान्वित करता है।
परन्तु इन्द्रियों, मन, और बुद्धि का प्रकाशक चेतना है। मनुष्य में चेतना न हो तो इन्द्रियों, मन, और बुद्धि कार्य करने सक्षम नहीं है।
अध्याय ३ श्लोक ४२ में कहा गया है कि संसार का ज्ञान तो इन्द्रियों से होता है। इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है, मन से श्रेष्ठ बुद्धि है और बुद्धि को प्रकाशित करने वाला चेतन तत्व है। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि में क्रिया होती है, परन्तु चेतना में कोई क्रिया नहीं है।
जिस शरीर को चेतना प्रकाशित करती है, उस शरीर में स्थित अज्ञानी पुरुष संसार के विषयों को भोगते हुये, यह नहीं जान पाता कि शरीर में होने वाले सभी क्रिया, उसकी अपनी प्रकृति और गुणों के अधीन है। मनुष्य अपनी प्रकृति और गुणों के परवश हुआ, इन्द्रियों के विषय के प्रति इतना आकर्षित रहता है, कि वह यह जान ही नहीं पाता की कर्त्ता कौन है। इस परवशता और आकर्षण को अध्याय १५ श्लोक ७ में भगवान श्रीकृष्ण ने योगमाया कहा है।
वह यह नहीं जान पाता कि जब तक चेतना है तभी तक शरीर से कार्य होते है। चेतना स्वयं से कोई कार्य नहीं करता। कार्य चेतना के प्रकाश में प्रकृति के आधीन हो शरीर से होते है। स्वयं के होने का भाव शरीर का नहीं है, अपितु शरीर में स्थित चेतना से प्राप्त है।
उसी प्रकार, जब शरीर से चेतना का त्याग होता है तब जीव अपने अस्तित्व का त्याग देखता है। मूढ़ता वश जीव यह जान नहीं पाता की जीवित रहते हुये उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व था ही नहीं। शरीर के रूप में स्वयं के होने का जो भाव था वह चेतना से प्राप्त था, शरीर का नहीं।
अध्याय १५ श्लोक ७ में भगवान श्रीकृष्ण पुरुष को जीव कहते है और कहते है की इस जीव में जो चेतना है, जिस के प्रकाश में जीव कार्य करता है, वह चेतना परमात्मतत्व का ही सनातन अंश है। परन्तु यह पुरुष (जीव) मन और पाँचों इन्द्रियों से आकर्षित हो कर शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है।
जब भगवान् श्रीकृष्ण चेतनतत्व को परमात्मतत्व का ही सनातन अंश कहते है, तब इसका अर्थ यह नहीं है कि परमात्मतत्व और चेतनतत्व पृथक है। परमात्मतत्व और चेतनतत्व एक ही तत्व के दो नाम है। मनुष्य शरीर में चेतना परमात्मतत्व से प्राप्त होती है, परन्तु समझने की सरलता के लिये चेतना को प्रकाशित करने वाले परमात्मतत्व को चेतनतत्व कहा है। और क्योकि मनुष्य चेतना को शरीर का अंश मानता, इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि चेतनतत्व शरीर का अंश नहीं है, अपितु परमात्मतत्व का अंश है।
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