आधारभूत सिद्धांत होने के कारण, यह हर परिस्थिति, देश, काल, में सत्य हैं। इसको कभी असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। क्योकि यह यह सृष्टि के आरम्भ का भी कारण है, इसलिये इसको सनातन धर्म कहा जाता है।
समस्त सृष्टि का आधार केवल और केवल परमात्मतत्व है। परमात्मतत्व वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म तत्व है, जो अखंड, अनन्त, अव्यय, निराकार, निगुर्ण, सर्वव्यापी, निश्चल, समरस, शाश्वत, एवम व्यापक है। यह अति सूक्ष्म तत्व (परमात्मतत्व) ही समस्त सृष्टि का ऊर्जा स्तोत्र है।
सृष्टि का कारण भी परमात्मतत्व है और कार्य भी परमात्मतत्व है। सृष्टि की उत्पत्ति भी स्वतः परमात्मतत्व से होती है; परमात्मतत्व में ही सृष्टि स्थित है; परमात्मतत्व से ही परिपूर्ण है और परमात्मतत्व में ही उसकी विलीनता है।
आकाशगंगा, सौरमंडल, नक्षत्र, भूमण्डल, को मिला कर सृष्टि प्रतिष्ठित है। भूमण्डल मे भी वायु, अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी, जड़-चेतन प्राणी एवं अन्य अनेक प्रकार के प्रदार्थ है।
अगर सृष्टि एक इकाई है तो इस सृष्टि में जो भी प्रतिष्ठित है, वह इस इकाई के घटक है।
सृष्टि के प्रत्येक घटक में कुछ क्रियाएँ होती रहती है उन क्रियाओं का आरम्भ और अंत होता है। प्रत्येक घटक में होने वाली क्रिया, अन्य घटक पर प्रभाव डालती है और स्वयं भी प्रभावित होती है। एक-दूसरे के प्रभाव में प्रत्येक घटक में क्रिया-प्रतिक्रिया का चक्र चलता रहता है। एक दूसरे के प्रभाव से ही सृष्टि प्रतिष्ठित है और क्रियाशील है।
भूमण्डल मे जितने भी जड़-चेतन प्राणी है, उनकी सब की उत्त्पति-उपस्थिति-विनाश का चक्र निरन्तर चलता रहता है। घटक जिन भौतिक तत्वों से बना है, उन तत्वों की भी उत्त्पति-उपस्थिति-विनाश का चक्र निरन्तर चलता रहता है। भूमण्डल के जड़-चेतन प्राणी अपने आस्तित्व के लिये जीवन निर्वाह की सामग्री भूमण्डल से प्राप्त करते है और स्वयं भी अन्यों के लिये आहार बनते है।
घटक में होने वाली क्रिया; क्रिया-प्रतिक्रिया; उत्त्पति-उपस्थिति-विनाश, का आधार, घटक को प्राप्त उसके गुण है। घटक के गुण, घटक में और घटक से होने वाली क्रिया-कार्य को नियमित करते है। घटक के गुण सुनिश्चित करते है की घटक में और घटक से अपेक्षित कार्य निश्चित रूप से हो। घटक को अपेक्षित कार्य न करने की स्वतंत्रता नहीं है।
भूमण्डल मे अन्य जड़-चेतन प्राणी के सामान मनुष्य को भी कुछ गुण प्राप्त है, जो उसके कार्य को निर्धारित करते है।
गुण के रूप में मनुष्य को बुद्धि, कार्य करने की कुशलता और कार्य करने अथवा न करने का विवेक विशेष रूप से प्राप्त है। मनुष्य सृष्टि से प्राप्त पदार्थों से कुछ भी रचने में सक्षम है। मनुष्य इन गुणों का प्रयोग जीवन निर्वाह, जीवन सुरक्षा, सुविधा और सुख के लिये करता है। इस के विपरीत पृथ्वी के अन्य प्राणी, एक परिसीमा में रह कर ही निर्धारित कार्य कर सकते है, जो मुख्यता उनके जीवन निर्वाह के लिये ही पर्याप्त होते है।
मनुष्य के इन गुणों के अनुरूप मनुष्य के लिये कुछ कार्य निर्धारित हुए है, जिसका वर्णन श्रीमद् भगवद् गीता में हुआ है।
अध्याय ३ श्लोक १० में प्रजापति ब्रह्माजी मनुष्य को कहते है कि, हे मनुष्य! तुम लोग अपने कार्यों (कर्तव्य) द्वारा अपने को समृद्ध करो और सृष्टि चक्र रूपी यज्ञ में अपना योगदान दो।
यहाँ समृद्धि, का अर्थ इस प्रकार है।
स्वयं के जीवन निर्वाह, जीवन सुरक्षा एवं सुविधा के अनेक प्रकार के वस्तु की रचना करना। इस समृद्धि में अध्यात्म ज्ञान, भौतिक विज्ञान और अपनी कार्य कुशलता की वृद्धि भी है। क्योकि मनुष्य को बुद्धि और विवेक प्राप्त है, इस कारण अध्यात्म ज्ञान को प्राप्त करना अति आवश्यक है।
जिस प्रकार अन्य प्राणियों को जीवन निर्वाह के उपयुक्त सामग्री सृष्टि से प्राप्त है, उसी प्रकार मनुष्य को भी प्राप्त होती रहगी। ऐसा प्रजापति ब्रह्माजी इस श्लोक में कहते है।
अध्याय ३ श्लोक ११ में प्रजापति ब्रह्माजी कहते है कि, हे मनुष्य जब तुम भूमण्डल के संसाधन, सम्पदा का उपभोग करोगे तब उनका संरक्षण करना तुम्हारा कर्त्तव्य है। इस प्रकार भूमण्डल की सम्पदा का संरक्षण करने से तुम एक दूसरे का सहयोग करते हुए तुम परम् कल्याण को प्राप्त होंगे।
जब भूमण्डल की सम्पदा के संरक्षण का विषय आता है तब उसमें वायु, जल, आकाश, वनस्पति, समस्त प्राणी (पशु, पक्षी, एवं अन्य जिव जन्तु), पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुंद्र एवं अन्य अनेक प्रकार के प्रदार्थ, सभी आ जाते है। मनुष्य स्वयं भी समस्त प्राणियों में आ जाता है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है की वह अन्य मनुष्य का संरक्षण भी करे।
अध्याय ३ श्लोक १२: इस श्लोक में ब्रह्माजी जी कहते है कि मनुष्य अपनी कार्य कुशलता से, बुद्धि से और पुरषार्थ से जिस वस्तु का भी उत्पादन करेगा, वह अन्य मनुष्य की सेवा के लिये करेगा।
मनुष्य के तीन विशेष गुण – बुद्धि, कार्य करने की कुशलता और विवेक, सभी मनुष्य को सामान रूप से प्राप्त नहीं है। इस कारण जीवन व्यापन के लिये मनुष्य को अन्य मनुष्य के सहयोग की आवयश्कता होती है। मनुष्य के इसी गुण (विशेष गुण सामान रूप से सभी मनुष्य को प्राप्त नहीं होना) के कारण मनुष्य समाजिक व्यवस्था में रहता है।
इस प्रकार मनुष्य के तीन मुलभुत धर्म (कर्तव्य) इस प्रकार है
इन तीन मुलभुत धर्म से ही मनुष्य के अन्य समाजिक धर्म (कर्तव्य) निर्धारित हुए है।
सृष्टि और समाजिक व्यवस्था में रहने के लिये, मनुष्य के अन्य धर्मों का वर्णन सनातन वेदों में विस्तार से हुआ है।
कर्तव्य का अर्थ है, वह कार्य जो करने योग्य हो। क्योकि मनुष्य को कार्य करने अथवा न करने का विवेक प्राप्त है, इसलिये जो कार्य सृष्टि चक्र को क्रियाशील बनाय रखने के लिये अनिवार्य है, वह मनुष्य के लिये करने योग्य कार्य है। अर्थात कर्तव्य है।
ऐसा कहने पर भी यह सत्य है कि मनुष्य के सभी कार्य उसको प्राप्त गुणों के कारण ही होते है।
अर्थात बुद्धि और विवेक होने का अर्थ यह नहीं है की मनुष्य संसार में कुछ भी कर सकता है। मनुष्य जो भी करता है, वह करता अपने प्राप्त गुणों के अनुरूप ही है। अतः गुणों के अनुरूप होने वाले कार्य मनुष्य के तीन आधारभूत धर्म के अनुरूप होने चाहिये। और यह ही मनुष्य का कर्तव्य है।
सनातन धर्म के तीन आधारभूत वैज्ञानिक सिद्धांत से ही संसार के अन्य वैज्ञानिक सिद्धांतो की उत्त्पति हुई है। इस सभी वैज्ञानिक सिद्धांतो के विषय में वर्णन सनातन वेदों में विस्तार से हुआ है।
सनातन वेद का अनुसरण करने वाली संस्कृति (भारत संस्कृति) ने इन सभी सिद्धांतो का उपयोग अपने तीन मुलभुत धर्म का पालन करते हुये किया है।
सनातन वेद में जिन वैज्ञानिक सिद्धांतो का वर्णन है, उनमें से कुछ इस प्रकार है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
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