धीर

धीर मनुष्य विपरीत परिस्थिति, दुःख को प्राप्त होने पर विचलित नहीं होता।

 

धीर मनुष्य के अन्तःकरण में कोई विषाद, उद्वेग उत्त्पन्न नहीं होते। धीर पद विशेषण है जो मनुष्य के गुण को दर्शाता है।

मनुष्य के शरीर में जब कष्ट होता है, तो वह विचलित होता है। मनुष्य जिन प्राणियों या पदार्थ को अपना मानता है और उनसे वियोग होता है, तब वह विचलित होता है, दुःखी होता है। परन्तु धीर मनुष्य के शरीर को कष्ट होने पर, प्राणि/पदार्थ से वियोग होने पर विचलित नहीं होता, दुःखी नहीं होता।

 

धीर और धैर्य में क्या अन्तर है?

निर्धारित समय के लिये विचलित नहीं होना धैर्यवान मनुष्य का गुण है। परन्तु धीर मनुष्य निरन्तर शान्त रहता है, कभी भी विचलित नहीं होता। कुछ समय के लिये विचलित नहीं होना धैर्य है और कभी भी विचलित नहीं होना धीर है।

 

श्रीमद् भगवद् गीता में धीर मनुष्य सम्बंधित वर्णन।

अध्याय २ श्लोक ५६ में भगवान श्री कृष्ण कहते है कि जो मनुष्य दुःख की प्राप्ति होनेपर उद्विग्न नहीं होता, सुख की प्राप्ति होने पर उसके मन में स्पृहा (प्रसन्ता) नहीं होती वह मनुष्य धीर है।

पुनः अध्याय १४ श्लोक २४ में धीर मनुष्य के गुणों का वर्णन हुआ है। यह श्लोक कहता है कि धीर मनुष्य वह है जो सुख-दुःख में, प्रिय-अप्रिय में अपनी निन्दा-स्तुति में तथा मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है।

 

मनुष्य अधीर क्यों और कब होता है?

स्वयं के शरीर से सम्बन्ध मानना, अन्य प्राणि या पदार्थ से सम्बन्ध मानना विचलित होने का कारण है। मनुष्य जब अन्य प्राणि या पदार्थ को अपना मानता है, ममता रखता है, तब उससे वियोग होने पर मनुष्य दुःखी होता है।

भगवान श्रीकृष्ण अध्याय २ श्लोक १३ में कहते है कि जिन योद्धाओं से तुमने सम्बन्ध मान रखा है, उनकी देह में तो निरन्तर परविर्तन हो रहा है। यह देह आरम्भ में शिशु रूप में थी, फिर उसकी कुमार, युवा और वृद्धा अवस्था होती है। और अन्त में इस देह का मृत्यु रूप में अन्त होता है। अतः जिस विषय में निरन्तर परविर्तन हो रहा है तो उसका मृत्यु होने पे ही दुःख क्यों? इस परिवर्तन शरीर में जो नित्य रहने वाला शरीरी (आत्मा) है, तुम्हारा सम्बन्ध उससे होना चाहिये।

अतः भगवान श्री कृष्ण कहते है कि धीर मनुष्य इस शरीर के परिवर्तन से मोहित नहीं होते क्योंकि जो देहधारी (शरीरी, चेतनतत्व) हैं, उस में कोई परिवर्तन नहीं आता और देह के अन्त होने पर भी देही की सत्ता बनी रहती है।

धीर मनुष्य विचलित क्यों नहीं होता, दुःखी क्यों नहीं होता? क्योकि उसका विवेक जाग्रत है। क्योकि वह जनता है कि देह क्या है, देही क्या है; परिवर्तनशील क्या है, अपरिवर्तनशील क्या है; अनित्य क्या है, नित्य क्या है; असत् क्या है, सत् क्या है; विकारी क्या है, विकारी क्या है। देह और देही सर्वथा अलग हैं और वह स्वयं देही है इस असङ्गता का अखण्ड ज्ञान धीर मनुष्य को रहता है।

अध्याय २ श्लोक १५ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम भाव रहता है, वह अमृतत्व को प्राप्त करने में सामर्थ्य हो जाता है।

 

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