क्रिया की प्रतिक्रिया; कार्य करने का परिणाम; यह फल के शाब्दिक अर्थ है।
मनुष्य के सन्दर्भ में, मनुष्य जब कोई भी कार्य करता है, तब कार्य करने के परिणाम स्वरूप, निश्चित रूप से परिस्थिति में परिवर्तन होता है; या पदार्थ की प्राप्ति-अप्राप्ति होती है।
कामना पूर्ति होने पर वह फल, मनोवांछित फल, अनुकूल फल या शुभ फल कहलाता है। कामना के अनुरूप न होने पर वह फल, विपरीत फल, प्रतिकूल फल या अशुभ फल कहलाता है।
मनुष्य के कार्य जब कामना पूर्ति के उद्देश्य से नहीं होते, या मनुष्य कार्य से सम्बन्ध नही मानता, तब कार्य का केवल परिणाम होता है, क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। कर्म और उसका फल नहीं होता।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते है कि जय-पराजय, लाभ-हानि का विचार त्याग कर केवल युद्ध करो। अर्थात तुम युद्ध रूपी कार्य से सम्बन्ध मत रखो। ऐसा करने से युद्ध का परिणाम तुम्हारे लिये पाप-पुण्य रूपी फल नहीं होगा। कार्य (युद्ध) से सम्बन्ध न होने पर युद्ध का परिणाम तुम्हारे अन्तःकरण में सुख-दुःख का भाव उत्त्पन्न नहीं करेगा।
जब कार्य स्वयं के लिये है होता है तो उसका फल पाप-पुण्य रूप से बन्धन होता है। परन्तु जब कार्य करने का कारण कर्तव्य पालन और समाज कल्याण का हो तो उसका फल पाप-पुण्य रूप से बन्धन नहीं होता।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते है कि जब मनुष्य फल की कामना नहीं करता, कार्य से सम्बन्ध नही मानता, कार्य में राग-द्वेष नहीं करता। सभी कार्यों में समता का भाव रखता है, केवल अपने धर्म का पालन करता है। तब कार्य का परिणाम कर्म-फल से रहित हो जाता है। उस परिणाम में अनुकूलता-प्रतिकूलता का भाव नहीं रहता।
अनुकूलता-प्रतिकूलता का भाव ही कर्म-फल है।
सकाम भाव से किये गये कार्यों में अगर कोई कमी रह जाय तो उसका फल कामना के अनुरूप नहीं होता, और तब वह विपरीत फल हो जाता है। मनुष्य में कामना नहीं रहेगी, तो कामना पूर्ति का जो फल है उसका कोई महत्त्व नहीं रह जाता। फल में कोई महत्त्व न रहने से वह विपरीत फल नहीं रहता।
साथ ही इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समता प्राप्ति के लिये योग साधना रूपी कार्य करने को कहते है। साथ ही कहते है कि योग साधना क्योकि मनुष्य कल्याण के लिये होती है, इसलिये इस कोई अनुकूल-प्रतिकूल फल नहीं होता। कल्याण रूपी कार्य का फल कल्याण ही होता है।
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