भय

भय मनुष्य का भाव है, जो अनिष्ट की आशंका से उत्पन्न होता है।

 

भय का भाव कब उत्तपन्न होता है?

मनुष्य जब संसारिक विषयों की कामना करता, उनमें सुख देखता है और उनका भोग करता है, तब उन विषयों से वियोग होने पर दुःख होता है। अतः वियोग की आशंका और वियोग से होने वाले दुःख ही आशंका भय का भाव उत्तपन्न करती है।

मनुष्य अपने शरीर के साथ सम्बन्ध मानता है, उसमें ममता रखता है। अतः शरीर के वियोग (मृत्यु) की आशंका मनुष्य के अन्दर सबसे अधिक भय उत्तपन्न करती है।

भय की उत्त्पति का मूल कारण क्या है?

संसारिक पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति (विषयों) से अपना सम्बन्ध मानना, उनमे आसक्ति होना, उनकी कामना करना, उनका भोग करना भय का कारण है।

मनुष्य का जन्म और जीवन का उद्देश्य है, स्वयं का कल्याण। मनुष्य के अन्तःकरण में भय, क्रोध, राग-द्वेष, आदि अनेक प्रकार के विकार और विषमताएं है। यह विकार और विषमताएं ही मनुष्य के स्वयं के कल्याण में सबसे बड़ी बाधा है। इस विकार और विषमता रूपी बाधा को दूर करने के लिये सर्व प्रथम यह जानना आवश्यक है कि इनकी उत्त्पत्ति कहा से है?

इस विषय में भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद भागवत गीता के अध्याय २ श्लोक ६२ और ६३ में बड़ी स्पष्टा से व्यक्त करते है कि मनुष्य के पतन का आरम्भ कहा से होता है और उसके पतन की यात्रा किस प्रकार होती है।

मनुष्य संसार के अप्राप्त विषय (पदार्थ, प्राणी, परिस्थिति) को सुन्दर और सुख का साधन समझकर उनमे प्रियता पैदा कर लेता। विषय में प्रियता होने से, विषय से सम्बन्ध बनता है, विषय में आसक्ति हो जाती है। विषय में प्रियता और सम्बन्ध होने से उसको प्राप्त करने की कामना उत्त्पन्न होती है।

कामना उत्त्पन्न होने पर मनुष्य कामना पूर्ति के लिये कार्य करता है, प्रयत्न करता है। अतः मनुष्य को सर्व प्रथम कामना पूर्ण न होने का भय होता है। कामना पूर्ण होने पर मनुष्य उस विषय का भोग करता है। भोग करने से, उस विषय में आसक्ति और दृढ़ हो जाती है। अब मनुष्य को भय होता है कि कही वह उस भोग से वंचित न हो जाय।

मनुष्य जब भय को यथार्थ होता देखता है या मनुष्य का भोग से वियोग होता है, तब उसको क्रोध होता है। क्रोध होता है उस प्राणी, पदार्थ अथवा परिस्थिति पर, जो, उस वियोग का कारण है। आगे क्रोध ही मनुष्य के नाश का कारण बनता है।

अतः भगवान श्रीकृष्ण अध्याय ३ श्लोक ३७ में अर्जुन से कहते है कि, हे अर्जुन, कामना पूर्ति की भूख बहुत बड़ी होती है और यह मनुष्य से महा पाप कराती है। अतः इसको तुम अपना अबसे बड़ा शत्रु जानो। अतः जो मनुष्य उत्पन्न कामना के वेग को सहन करने में समर्थ होता है, वह नर है और वही सुखी है (अध्याय ५ श्लोक २३)।

मनुष्य को प्राप्त सुख के वियोग होने का भय होता है और दुःख की प्राप्ति होने की आकांशा से भय होता है। अध्याय २ श्लोक १४ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि यह सुख-दुःख अनित्य है। अर्थात आने-जाने वाले है। अतः इनको महत्व मत दो और इनमें समता का भाव रखो।

भय से मुक्ति किस प्रकार हो?

आगे भगवान श्रीकृष्ण अध्याय २ श्लोक ४० में कहते है कि समता में स्थित होने का प्रयास, कामना का त्याग और अपने धर्म का पालन, मनुष्य को मृत्यु के महान् भय से रक्षा करता है।

जो मनुष्य इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि को अपने वश में करने में सफल हो जाता है वह भय से सर्वथा मुक्त है (अध्याय ५ श्लोक २८)। इस प्रकार भय से पूर्ण रूप से मुक्ति के लिये मनुष्य को योग की सिद्धि के लिये साधना करनी चाहिये।

पूर्व काल में अनेक दिव्य पुरषों ने जन्म लिया है, जैसे भगवान श्री राम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान परशुराम, राजा जनक आदि। जो मनुष्य दिव्य पुरषों के अपने जीवल काल में किये कार्यों को यथार्थ से जान लेता है, और उनका अनुसरण करता है। वह मृत्यु के भय से मुक्त हो, परमानन्द को प्राप्त होता है (अध्याय ४ श्लोक ९)।

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