मोहित

संसारिक पदार्थ-परिस्थिति से सम्बन्ध मान कर मनुष्य जब उसका भोग (सुख-दुःख) लेने लगता है, तब मनुष्य उस पदार्थ-परिस्थिति के प्रति मोहित कहलाता है।

 

संसारिक पदार्थ-परिस्थिति अनित्य है, परिवर्तनशील है। परन्तु मनुष्य उसकी नित्यता मान कर उसका भोग करता है। इस प्रकार मोहित होने का मुख्य कारण मनुष्य की अज्ञानता है।

 

श्रीमद भगवद गीता में मोहित सम्बंधित वर्णन

 

 अध्याय २ श्लोक १३

 

अर्जुन कुरुक्षेत्र के युद्ध में अपने सम्बन्धियों के मारे जाने की कल्पना से शोकाकुल है। भगवान श्रीकृष्ण इस विषय पर कहते है कि जिन लोगों के लिये तुम शोकाकुल हो, उनके शरीर में निरन्तर परिवर्तन होता रहा है।

जन्म होने के साथ ही शरीर में परिवर्तन होना आरम्भ हो जाता है। शरीर में बाल्यावस्था, युवावस्था एवम वृद्धावस्था आती है। और जिस मनुष्य का जन्म हुआ है उसका देहान्त भी होता है। तब उस परिवर्तित होते शरीर से सम्बन्ध मान कर दुःखी होने का क्या कारण है? तुम्हे इस प्रकार मोहित नहीं होना चाहिये।

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि धीर मनुष्य इस शरीर के परिवर्तन से मोहित नहीं होते। क्योंकि जो देहधारी (शरीरी, चेतनतत्व) हैं, उस में कोई परिवर्तन नहीं आता और देह के अन्त होने पर भी देही की सत्ता बनी रहती है।

देह क्या है, देही क्या है; परिवर्तनशील क्या है, अपरिवर्तनशील क्या है; अनित्य क्या है, नित्य क्या है; असत् क्या है, सत् क्या है; विकारी क्या है, विकारी क्या है। इन विषय पर धीर मनुष्य को ठीक-ठीक ज्ञान होने के कारण, उसमें मूढ़ता (मोह) नहीं रहता। देह और देही सर्वथा अलग हैं और वह स्वयं देही है इस असङ्गता का अखण्ड ज्ञान धीर मनुष्य को रहता है।

 

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

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