अन्तःकरण (मन) में अनेक प्रकार की विषमताओं से उत्त्पन्न होते है अनेक प्रकार के विकार। विषमताओं के कारण ही मनुष्य दुःख, भय, क्रोध, आदि अनेक प्रकार के विकारों की अनुभूति करता है।
मनुष्य की प्रवृति होती है, की वह निरन्तर सुख की अनुभूती करना चाहता है। इसलिये मनुष्य के संसार में जितने भी कार्य होते है वह सब सुख की प्राप्ति के लिये होते है।
परन्तु मनुष्य मूढ़ता वश संसार के पदार्थों से सम्बन्ध मान कर, उनमें राग-द्वेष कर सुख की अनुभूती करने की कोशिश करता है। यह राग-द्वेष ही अन्तःकरण की विषमता है, जो विकारों का कारण है।
संसार के पदार्थ, एवं प्राणी में मनुष्य जब राग करता है, तब वह उसको प्राप्त करने की कामना करता है। उसी प्रकार जिस पदार्थ, एवं प्राणी में द्वेष होता है, उसके वियोग की कामना करता है।
इस प्रकार मनुष्य अनन्त कामनाएं करता रहता है। जिससे अन्तःकरण में निरन्तर विषमता स्थित रहती है।
अन्तःकरण में विषमता का न होने का अर्थ है समता का होना। अन्तःकरण में समता होने से सभी विकार स्वतः नष्ट हो जाते है। और तब रहे जाता है केवल आनंद। वह सुख जो कभी दुःख में परिवर्तित नहीं होता।
अतः भगवान श्रीकृष्ण अध्याय २ श्लोक ४१ में कहते है कि, अर्जुन तुम सांसारिक पदार्थों की कामना का त्याग करो और केवल समता प्राप्ति की कामना करो। साथ ही वह कहते है कि समता प्राप्ति के लिये तुम्हारी व्यवसायात्मिका बुद्धि होनी चाहिये।
व्यवसायात्मिका बुद्धि का अर्थ है कि बुद्धि में दृढ़ निश्चय होना चाहिये की मेरे को समता की प्राप्ति करनी है। कामना के नाम पर, केवल समता प्राप्ति की कामना होनी चाहिये। सांसारिक पदार्थों की कामना नहीं।
मनुष्य अगर समता प्राप्ति के लिये एक व्यवसायात्मिका बुद्धि नहीं करता है, तो उसकी बुद्धि अस्थिर रहती है और वह सांसारिक पदार्थों को प्राप्त करने के लिये अनेक कामनायेँ करता रहता है। जो अनन्त होती हैं।
आगे अध्याय २ श्लोक ४४ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि, जो मनुष्य संसार के भोग और एश्र्वर्य का आदि हो गया है। जो भोग और एश्र्वर्य में रच-बस गया है, वह अपनी व्यवसायात्मिका (निश्चित) बुद्धि नहीं कर सकता।
अतः भगवान श्रीकृष्ण मनुष्य को कहते है कि तुम दृढ़ता से सांसारिक विषयों की कामना और भोग का त्याग करो और समता प्राप्ति के लिये अपना धय बनाओं।
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