समता

अन्तःकरण में किसी प्रकार की वृति, विषमता का न होना समता का भाव है।

समता का शाब्दिक अर्थ है समानता। एक सामान।

मनुष्य के अन्तःकरण में अनेक प्रकार की वृत्तियाँ उत्त्पन्न होती रहती है। कामना, राग-द्वेष, आसक्ति, ममता, अहंकार, भय, क्रोध, आदि कुछ मुख्य वृत्तियाँ है।

इन वृतियो के कारण मनुष्य सुख-दुःख के बन्धन में बँधा रहता है। अर्थात उसके सभी कार्य सुख प्राप्ति के लिये और दुःख के निवारण हेतु होते है।

अगर मनुष्य इन वृतियो का नाश करने में सफल हो जाता है, तब उसके अन्तःकरण में जो भाव होता है, वह समता का भाव है।

समता का भाव स्थित होने पर मनुष्य को सुख-दुःख के भाव उत्त्पन्न नहीं होते। तब जो भाव स्थित रहता है, वह आनन्द का भाव है। क्योकि समता का भाव का कभी अन्त होता, इसलिये आनन्द की निरन्ता बनी रहती है। इसलिये समता का भाव परमान्द का भाव है।

और इस भाव में स्थित होना ही परमात्मा, ब्रह्म, परमात्मतत्व की प्राप्ति है।

समता प्राप्ति की महत्ता

अध्याय २ श्लोक १५ : समता को प्राप्त होने पर मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है।

अध्याय २ श्लोक ३९ : समता से युक्त मनुष्य के सभी कार्य, वृतियो के बन्धन से मुक्त होते है। अर्थात कार्य वृतियो के बन्धन से प्रभावित नहीं होते।

अध्याय २ श्लोक ४० : समता से युक्त मनुष्य भय से मुक्त हो जाता है।

मनुष्य जीवन का उद्देश्य, समता के भाव को प्राप्त करना और उसमें स्थित रहने में है।

अध्याय २ श्लोक ४८ में भगवान श्रीकृष्ण वर्णन करते है कि, समता प्राप्ति की जो प्रक्रिया है, जो साधना है, उसको ‘योग’ कहते है।

 

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