स्वर्ग

जिस देश, काल में मनुष्य को निरन्तर सुख की अनुभूति हो, वह देश, काल स्वर्ग है।

 

मनुष्य को सुख की अनुभूति तभी होती है, जब प्राप्त पदार्थ, परिस्थिति मनुष्य के अनुकूल हो। अनुकूलता, पदार्थ/परिस्थिति से सम्बन्ध मान उसमें राग करने से होती है। और राग अन्तःकरण की वृति है।

अतः सुख की अनुभूति मनोवृत्ति है और इस प्रकार स्वर्ग की प्राप्ति का भाव भी मनोवृत्ति ही है।

मनुष्य की प्रकृति है की, वह आनन्द की प्राप्ति के लिये उद्योग करता है। परन्तु मूढ़ता वश मनुष्य संसार से सम्बन्ध मान कर, संसार को ही सुख, आनन्द का विषय मान लेता है।

साथ ही मनुष्य सुख और दुःख के लिये जो अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति उत्पन्न होती है, उसका कारण अपने शुभ अथवा अशुभ कर्मों को मानता है। मनुष्य का ऐसा मानना है की निरन्तर शुभ कर्म करने से, फल स्वरूप उसको अनुकूल परिस्थिति ही उत्पन्न होगी। अर्थात स्वर्ग की प्राप्ति होगी।   निश्चय ही शुभ कर्म करना, स्वयं (करने वाले) के लिये और समाज, संसार के लिये कल्याण करने वाला है।

अतः स्वर्ग की कामना वृति होने पर भी मनुष्य का कल्याण करने वाली है। कारण की स्वर्ग की कामना से मनुष्य शुभ कर्म करता है। स्वर्ग प्राप्ति के लिये किये जाने वाले तप, साधना परमात्मतत्व की प्राप्ति के लिये प्रथम द्वार है। कारण की स्वर्ग और परमात्मतत्व प्राप्ति  में अन्तर केवल अहंकार का है।

स्वर्ग के लिये कार्य करने पर मनुष्य का अहंकार बना रहता है। परन्तु परमात्मतत्व प्राप्ति के लिये कार्य करने पर मनुष्य का अहंकार भी नष्ट हो जाता है।

 

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