जब मनुष्य सांसारिक पदार्थ कि कामना पूर्ति सत कर्मो के द्वारा परमात्मा को श्रेय देते हुए चाहता है, तब वह अर्थार्थी भक्त हैं।
अध्याय ७ श्लोक १६ में अर्थार्थी का वर्णन भक्त के रूप में हुआ है।
अर्थार्थी जब सांसारिक पदार्थों, धन की कामना को पूर्ण करने में स्वयं को असमर्थ पाता है, तब वह परमात्मा से प्रार्थना करता है। वह ऐसा विचार करता है की अमुख कामना को पूर्ण केवल परमात्मा ही कर सकते है। इस के लिये वह जप-तप, कीर्तन करता है। प्राप्त किया गई वस्तु अथवा धन का श्रेय वह परमात्मा को देता है। ऐसा भाव रखने वाले को भगवान श्रीकृष्ण ने अर्थार्थी भक्त कहा है।
साथ ही ऐसे भक्त को भगवान श्रीकृष्ण उदार भाव का मानते है । (अध्याय ७ श्लोक १८)
संसार में आसक्त मनुष्य शरीर से सम्बन्ध मान कर शरीर के द्वारा होने वाले कार्यों का कर्त्ता स्वयं को मानता है। यह उसकी मूढ़ता के कारण है। परन्तु जब मनुष्य स्वयं से कामना को पूर्ण करने में असमर्थ पाता है, तब कामना के पूर्ण होने पर अपने श्रेय को परमात्मा को समर्पित करता है। यह अर्थार्थी की उदारता ही तो है। कारण की अहंता का त्याग विशेष परिस्थिति में ही होता है।
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, मनुष्य जीवन के चार पुरुषार्थ है। यह चार पुरुषार्थ को करना ही मनुष्य जीवन का उदेश्य है। उद्देश्य इसलिये है क्योंकि इन चार पुरुषार्थ को करने से ही मनुष्य का कल्याण है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, का अर्थ क्या है? यह पुरुषार्थ करने से मनुष्य का कल्याण किस प्रकार है? धर्म धर्म का अर्थ है कर्तव्य। श्रीमद […]
Read MoreTo give feedback write to info@standupbharat.in
Copyright © standupbharat 2024 | Copyright © Bhagavad Geeta – Jan Kalyan Stotr 2024