पण्डित

समता में स्थिर मनुष्य को जब परमात्मतत्व की अनुभूति होती है, तब वह पण्डित कहलाता है।

मनुष्य जो भी कार्य करता है, उसको करने से पूर्व वह उचित-अनुचित का विचार करता है। उचित-अनुचित के विचार करते हुए मनुष्य स्वयं को विचार के केन्द्र में रखता है। स्वयं का हित जिस प्रकार हो,  उसी को वह उचित मानता है। ऐसा वह इसलिये करता है, क्योंकि वह निरन्तर अपना हित चाहता है, अपना कल्याण चाहता है।
अतः किसी भी प्रकार का कार्य करने से पूर्व मनुष्य को यह ज्ञान होना चाहिये के उसका हित किसमें है और कार्य किस प्रकार होगा।
मनुष्य को स्वयं का हित किसमें है, इसको जानने के लिये मनुष्य को स्वयं का ज्ञान होना चाहिये।
स्वयं के विषय में ज्ञान होने को अध्यात्म ज्ञान कहते है।
कार्य को करने के विषय में ज्ञान का होना भौतिक ज्ञान है।
विषय जब स्वयं को जाने का है, तब स्वयं को जानना केवल बुद्धि का कार्य नहीं है। बुद्धि के साथ यह अनुभूति का विषय है।
स्वयं को जाने का अर्थ है, शरीर, मन और बुद्धि से होने वाली क्रिया को द्रष्टा रूप से देखना। मनुष्य जब शरीर, मन और बुद्धि से होने वाली क्रिया को द्रष्टा रूप से देखता है तब उसको कर्ता रूप में परमात्मतत्व की अनुभूति होती है।
शरीर से होने वाली क्रिया को मनुष्य, द्रष्टा रूप से तभी देख सकता है, अथवा अनुभव कर सकता है, जब उसका अन्तःकरण समता में स्थिर हो।
इस प्रकार जो समता में स्थिर हो, स्वयं को द्रष्टा रूप से देखता है और परमात्मतत्व को अनुभव करता है, वह पण्डित है।
पण्डित उचित-अनुचित का विचार करके जो भी कार्य करता है, कार्य न केवल स्वयं का कल्याण करने वाला होता है, अपितु उस कार्य से संसार का भी कल्याण होता है।
अध्याय १३ श्लोक ११ में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि अध्यात्म के विषय में जो ज्ञान है, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (परमात्मतत्व) का जो ज्ञान है वह ही मूल रूप से जानने योग्य विषय है।
अन्य सभी प्रकार के भौतिक ज्ञान, अज्ञान के सामान है। कारण की भौतिक विषयों का ज्ञान सांसारिक कार्यों में तो सहायक है, परन्तु केवल इस ज्ञान को प्राप्त पर मनुष्य अपने कल्याण के विषय में उचित निर्णय नहीं ले सकता।
प्रज्ञावान मनुष्य जब पण्डित हो जाता है, तब उसके निर्णय विवेक पूर्ण होते है।
अतः हर विवेक पूर्ण व्यक्ति प्रज्ञावान होता है,  परन्तु हर प्रज्ञावान व्यक्ति विवेक पूर्ण नहीं होता।
इसी कारण अध्याय २ श्लोक ११ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते है कि तुम्हारा युद्ध न करने के लिये, उचित-अनुचित का विचार करना किसी प्रज्ञावान व्यक्ति के सामान है। परन्तु जिन विषयों को लेकर तुम शोक कर रहें हो,  वह पण्डित के कार्य नहीं है।
परन्तु मनुष्य अज्ञानता वश भौतिक विषयों से प्राप्त होने वाले क्षणिक सुख में ही अपना हित अथवा कल्याण देखता है। मनुष्य का स्वयं का हित अथवा कल्याण तभी संभव है जब वह:
स्वयं को जाने।
मनुष्य का हित किसमें है, इसको जाने।
मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है, इसको जाने।
अतः इन प्रश्नों के उत्तर को जानना ही योग साधना है, अध्यात्म ज्ञान को प्राप्त करना है।
मनुष्य को जब स्वयं के कल्याण के विषय पर ज्ञान होगा, तभी वह भौतिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर, भौतिक कार्यों से अपना कल्याण कर सकता है।
अतः मनुष्य को जब तत्व ज्ञान होता है; सत-असत का ज्ञान होता है; तब उसका उचित-अनुचित का विचार और निर्णय संसार कल्याण के लिये होता है। इस प्रकार का लिया हुआ निर्णय विवेक पूर्ण कहलाता है।
तब प्रज्ञा का कार्य विवेक पूर्ण कहलाता है। तब कहा जाता है कि मनुष्य का विवेक जागृत है।
तब प्रज्ञावान व्यक्ति पण्डित कहलाता है।
भौतिक ज्ञान का महत्त्व तभी है जब मनुष्य को स्वयं का ज्ञान हो।
सृष्टि के आरम्भ से ही मनुष्य के कार्य स्वयं के सुख के लिये हुये है। और कार्य करने में सरलता किस प्रकार हो इसका विचार कर, कार्य के रूप बदलते गये। बदलते कार्य के स्वरूप और बढ़ते भौतिक सुख-सुविधा को ही वैज्ञानिक प्रगति कहते है।

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