यज्ञ

कार्य करने की प्रक्रिया जो मनुष्य स्वयं, समाज, संसार, सृष्टि के कल्याण के लिये की जाती है उसको यज्ञ कहते है।

 

यज्ञ में एक से अधिक घटक का योग दान होता है।  प्रत्येक घटक के द्वारा होने वाली क्रिया, उस यज्ञ के लिये आहुति है।

सृष्टि के स्तर पर सृष्टि का चक्र रूप में गतिशील रहने की जो प्रक्रिया है, उस प्रक्रिया को यज्ञ कहते है।

आकाशगंगा, नक्षत्र, सौरमंडल, भूमण्डल, सृष्टि के घटक है और इनको मिला कर सृष्टि प्रतिष्ठित है। सृष्टि के इन सभी घटक में घटक में कुछ क्रियाएँ होती रहती है जो अन्य घटक पर प्रभाव डालती है और स्वयं भी प्रभावित होती है। इस प्रकार एक-दूसरे के प्रभाव में प्रत्येक घटक में क्रिया-प्रतिक्रिया का चक्र चलता रहता है। यह क्रिया-प्रतिक्रिया का चक्र ही यज्ञ है।

संसार के स्तर पर:

वायु, अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी, जड़-चेतन प्राणी एवं अन्य अनेक प्रकार के प्रदार्थ के द्वारा होने वाली क्रिया से संसारिक जीवन रूपी चक्र गतिशील है। इस  संसारिक जीवन रूपी चक्र को यज्ञ है।

समाज के स्तर पर:

मनुष्य को जीवन व्यापन के लिये अन्य मनुष्य के सहयोग की आवयश्कता होती है। इस आवयश्कता के कारण मनुष्य समाजिक व्यवस्था में रहता है। जीवन निर्वाह के लिये, समाजिक स्तर पर मनुष्य द्वारा किये जाने वाले कार्य समाजिक यज्ञ है।

स्वयं के स्तर पर:

स्वयं के कल्याण के लिये किये जाने वाले, तप, साधना रूपी क्रिया यज्ञ है।

अग्नि होम यज्ञ

सनातन धर्म का यह सिद्धान्त है की सृष्टि का कोई भी कार्य हो, उसमें प्रत्यक्ष, अथवा अप्रत्यक्ष रूप से समस्त सृष्टि का योगदान होता है। और उस कार्य का प्रभाव भी सभी पर पड़ता है। अतः सनातन धर्म संस्कृति में सभी का समन्वय अनिवार्य है।

सनातन धर्म संस्कृति का पालन करने वाला व्यक्ति सृष्टि के समस्त घटकों को शक्ति (देवी-देवता) के रूप में देखता है। और किसी भी यज्ञ की सिद्धि के लिये अग्नि होम और मन्त्रो की सहायता से इन शक्तिओ का आवाहन करता है और कार्य पर केन्द्रित करता है।

इस प्रकार की क्रिया को अग्नि होम यज्ञ कहते है। इस प्रकार किसी भी संसारिक यज्ञ से पूर्व और उसके साथ अग्नि होम यज्ञ किया जाता है।

 

धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष

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